रात के कुछ २ बज रहे थे, मार्च का महीना अपने कुछ दिनों के साथ आखिरी पड़ाव पर था। बसंत के इस महीने में रातें उन पुराने दिनों की तरह ना थीं । मौसम में न तो वो ठंडक थी जो पहले बहा करती थी, न फिज़ा में नयी कलियों, फूलों और पत्तियों की मादक महक जो मन को छू जाये ....और न ही हवा में वो रूमानियत थी जो आपको घर की चाहरदीवारी से खींच कर खुली हवा में जाने पर मजबूर कर दे ।
खिड़की के उड़ते परदे कमरे में फैले सन्नाटे को तोड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे... मानो उसी तरह जैसे कमरे में पसरी दो आँखें दीवारों पर कुछ पढने की ..... हवा के एक तेज़ झोंके ने खिड़की के परदे को फिर उड़ा दिया था ....उसी पल खिड़की के बाहर का नज़ारा दिखा...शायद मेरी तरह उस चाँद की आँखों से भी नींद कोसों दूर थी....आज चाँद फिर बहुत खूबसूरत लगा, उसकी तरह.....शायद कुछ अर्से के बाद देखा था उसे ...उठकर खिड़की के परदे को एक तरफ सरका दिया.....चलो चाँद का ही दीदार कर लें.....अगर बे रोक टोक उस चाँद का दीदार करता, तो वो चाँद उसकी तरह ना बोलेगा कि तुम अपना काम क्यों नहीं करते या फिर इतने लोग देख रहे हैं या किसी अखबार या नोटबुक से अपना चेहरा छिपाने की कोशिश न करेगा .... उस समय शायद इस हंसी-मजाक का अर्थ भी न पता था मुझे ....
जब उन बीते दिनों में सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा सा जान पड़ता था । न मुझे कुछ कहने की जरुरत होती थी और न उस कुछ समझने की या कहने की । सब कुछ तो ऐसा ही था जैसे बिन कहे वे सभी शब्द अपने अर्थो को पा गए हों ।
मन में उठते विचार और फर्श के सफ़ेद संगमरमर पर पसरी चाँद की चांदनी, समय के साथ धीमे- धीमे अपने कदम बढ़ा रही थी .....आज न जाने उस चाँद की चांदनी में शीतलता और आकर्षण न था जो पहले बरबस अपनी ओर ध्यान खींच लिया करती थी .....इस बदलते समय ने चाँद को पहले सा न रहने दिया ....ठीक उन दिनों की तरह और उन पलों की तरह जब शब्द अपने अर्थों के साथ -साथ रहते थे । कुछ तलाशने की जरुरत ही न होती थी .....जो भी था वक़्त ने तो अपनी करवट ले ही ली थी .....
बहुत कुछ पहले जैसा न था, कितना कुछ तो बदल गया था .... फिर बदलते समय के साथ, शायद उसके कहे शब्द अपने अर्थों को खोजते रहे जैसे कि उसे मेरी आँखें । एक बार उसने मुझसे पूंछा तुम बाहर क्यों जाना चाहते हो, अपना देश बहुत अच्छा है...अपने लोग हैं यहाँ....अचानक पूंछे गए इस सवाल का कोई जवाब न था, मेरे पास .....बस हंसकर कहा, बस कुछ समय के लिए ही तो जाना चाहता हूँ, शायद १ या २ साल के लिए ही । पर शायद मैं भी नहीं जानता था कि उसके इन शब्दों में क्या छिपा है ? और आज उनके अर्थ ही दूसरे थे । रफ्ता-रफ्ता, दिन ब दिन शब्द अपने अर्थों से उसी तरह दूर होते गए जैसे की मुझसे वो.....
काश समय के साथ शब्द अपना वजूद न खोते और उन्हें बदले दौर की तरह अपने अर्थ न खोजने पड़ते । काश कि सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा ही रहता ....काश कि उसके उन शब्दों के अर्थ को ही न समझता जो आज के इस दौर में कहीं खो गए हैं .....
खिड़की के उड़ते परदे कमरे में फैले सन्नाटे को तोड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे... मानो उसी तरह जैसे कमरे में पसरी दो आँखें दीवारों पर कुछ पढने की ..... हवा के एक तेज़ झोंके ने खिड़की के परदे को फिर उड़ा दिया था ....उसी पल खिड़की के बाहर का नज़ारा दिखा...शायद मेरी तरह उस चाँद की आँखों से भी नींद कोसों दूर थी....आज चाँद फिर बहुत खूबसूरत लगा, उसकी तरह.....शायद कुछ अर्से के बाद देखा था उसे ...उठकर खिड़की के परदे को एक तरफ सरका दिया.....चलो चाँद का ही दीदार कर लें.....अगर बे रोक टोक उस चाँद का दीदार करता, तो वो चाँद उसकी तरह ना बोलेगा कि तुम अपना काम क्यों नहीं करते या फिर इतने लोग देख रहे हैं या किसी अखबार या नोटबुक से अपना चेहरा छिपाने की कोशिश न करेगा .... उस समय शायद इस हंसी-मजाक का अर्थ भी न पता था मुझे ....
जब उन बीते दिनों में सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा सा जान पड़ता था । न मुझे कुछ कहने की जरुरत होती थी और न उस कुछ समझने की या कहने की । सब कुछ तो ऐसा ही था जैसे बिन कहे वे सभी शब्द अपने अर्थो को पा गए हों ।
मन में उठते विचार और फर्श के सफ़ेद संगमरमर पर पसरी चाँद की चांदनी, समय के साथ धीमे- धीमे अपने कदम बढ़ा रही थी .....आज न जाने उस चाँद की चांदनी में शीतलता और आकर्षण न था जो पहले बरबस अपनी ओर ध्यान खींच लिया करती थी .....इस बदलते समय ने चाँद को पहले सा न रहने दिया ....ठीक उन दिनों की तरह और उन पलों की तरह जब शब्द अपने अर्थों के साथ -साथ रहते थे । कुछ तलाशने की जरुरत ही न होती थी .....जो भी था वक़्त ने तो अपनी करवट ले ही ली थी .....
बहुत कुछ पहले जैसा न था, कितना कुछ तो बदल गया था .... फिर बदलते समय के साथ, शायद उसके कहे शब्द अपने अर्थों को खोजते रहे जैसे कि उसे मेरी आँखें । एक बार उसने मुझसे पूंछा तुम बाहर क्यों जाना चाहते हो, अपना देश बहुत अच्छा है...अपने लोग हैं यहाँ....अचानक पूंछे गए इस सवाल का कोई जवाब न था, मेरे पास .....बस हंसकर कहा, बस कुछ समय के लिए ही तो जाना चाहता हूँ, शायद १ या २ साल के लिए ही । पर शायद मैं भी नहीं जानता था कि उसके इन शब्दों में क्या छिपा है ? और आज उनके अर्थ ही दूसरे थे । रफ्ता-रफ्ता, दिन ब दिन शब्द अपने अर्थों से उसी तरह दूर होते गए जैसे की मुझसे वो.....
काश समय के साथ शब्द अपना वजूद न खोते और उन्हें बदले दौर की तरह अपने अर्थ न खोजने पड़ते । काश कि सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा ही रहता ....काश कि उसके उन शब्दों के अर्थ को ही न समझता जो आज के इस दौर में कहीं खो गए हैं .....