Anuj Gupta
रात के कुछ २ बज रहे थे, मार्च का महीना अपने कुछ दिनों के साथ आखिरी पड़ाव पर था। बसंत के इस महीने में रातें उन पुराने दिनों की तरह ना थीं । मौसम में न तो वो ठंडक थी जो पहले बहा करती थी, न फिज़ा में नयी कलियों, फूलों और पत्तियों की मादक महक जो मन को छू जाये ....और न ही हवा में वो रूमानियत थी जो आपको घर की चाहरदीवारी से खींच कर खुली हवा में जाने पर मजबूर कर दे ।

खिड़की के उड़ते परदे कमरे में फैले सन्नाटे को तोड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे... मानो उसी तरह जैसे कमरे में पसरी दो आँखें दीवारों पर कुछ पढने की ..... हवा के एक तेज़ झोंके ने खिड़की के परदे को फिर उड़ा दिया था ....उसी पल खिड़की के बाहर का नज़ारा दिखा...शायद मेरी तरह उस चाँद की आँखों से भी नींद कोसों दूर थी....आज चाँद फिर बहुत खूबसूरत लगा, उसकी तरह.....शायद कुछ अर्से के बाद देखा था उसे ...उठकर खिड़की के परदे को एक तरफ सरका दिया.....चलो चाँद का ही दीदार कर लें.....अगर बे रोक टोक उस चाँद का दीदार करता, तो वो चाँद उसकी तरह ना बोलेगा कि तुम अपना काम क्यों नहीं करते या फिर इतने लोग देख रहे हैं या किसी अखबार या नोटबुक से अपना चेहरा छिपाने की कोशिश न करेगा .... उस समय शायद इस हंसी-मजाक का अर्थ भी न पता था मुझे ....
जब उन बीते दिनों में सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा सा जान पड़ता था । न मुझे कुछ कहने की जरुरत होती थी और न उस कुछ समझने की या कहने की । सब कुछ तो ऐसा ही था जैसे बिन कहे वे सभी शब्द अपने अर्थो को पा गए हों ।

मन में उठते विचार और फर्श के सफ़ेद संगमरमर पर पसरी चाँद की चांदनी, समय के साथ धीमे- धीमे अपने कदम बढ़ा रही थी .....आज न जाने उस चाँद की चांदनी में शीतलता और आकर्षण न था जो पहले बरबस अपनी ओर ध्यान खींच लिया करती थी .....इस बदलते समय ने चाँद को पहले सा न रहने दिया ....ठीक उन दिनों की तरह और उन पलों की तरह जब शब्द अपने अर्थों के साथ -साथ रहते थे । कुछ तलाशने की जरुरत ही न होती थी .....जो भी था वक़्त ने तो अपनी करवट ले ही ली थी .....

बहुत कुछ पहले जैसा न था, कितना कुछ तो बदल गया था .... फिर बदलते समय के साथ, शायद उसके कहे शब्द अपने अर्थों को खोजते रहे जैसे कि उसे मेरी आँखें । एक बार उसने मुझसे पूंछा तुम बाहर क्यों जाना चाहते हो, अपना देश बहुत अच्छा है...अपने लोग हैं यहाँ....अचानक पूंछे गए इस सवाल का कोई जवाब न था, मेरे पास .....बस हंसकर कहा, बस कुछ समय के लिए ही तो जाना चाहता हूँ, शायद १ या २ साल के लिए ही । पर शायद मैं भी नहीं जानता था कि उसके इन शब्दों में क्या छिपा है ? और आज उनके अर्थ ही दूसरे थे । रफ्ता-रफ्ता, दिन ब दिन शब्द अपने अर्थों से उसी तरह दूर होते गए जैसे की मुझसे वो.....


काश समय के साथ शब्द अपना वजूद न खोते और उन्हें बदले दौर की तरह अपने अर्थ न खोजने पड़ते । काश कि सब कुछ अनकहा होते हुए भी कहा ही रहता ....काश कि उसके उन शब्दों के अर्थ को ही न समझता जो आज के इस दौर में कहीं खो गए हैं .....
Anuj Gupta
शाम हो चली थी... उसका सबसे विदा लेने का समय हो चला था....जिंदगी की एक नयी शुरुआत फिर से करने का...अगर संभव हो सका तो...कहने को तो चंद साल ही हुए थे, उन सब के बीच ... लेकिन किसी लम्बे अर्से से कम न थे.... जैसे उसने अपनी जिंदगी वहीँ पर जी हो, उन सबके बीच ....उनमे से कुछ तो उस के अपनों की तरह थे....शायद एक दोस्त, एक हमदम , एक हमसफ़र की तरह ...

वो एक - एक कर सब से विदा हो चला था, कुछ आधे-अधूरे मन से, हर किसी के लिए उसके पास कहने के लिये कुछ न कुछ था... किसी को उस को nick name से पुकारता, कुछ को गले मिल विदा लेता तो किसी को कुछ code word कह कर, इशारे मे कुछ कह कर बढ़ निकलता... सबसे मिल कर वो उस के पास जा पंहुचा, शायद उसे भी उसका इंतजार था... अब भी मिलकर न जाता तो शायद तमाम उम्र एक दर्द सा कचोटता रहता सीने मे... इतना निष्ठुर भी नहीं था वो... कुछ पल की खामोशी बहुत कुछ कहे जा रही थी... क्या कुछ न था कहने, सुनने- सुनाने और पूँछने का उनके पास...अनगिनत बाते थी,शायद उस से भी ज्यादा बातें .... हँसने -हँसाने की, व्यंग्य या ताने मारने की और फिर खिलखिलाकर देर तक हँसने की .......

मगर दोनों के बीच एक लम्बी ख़ामोशी बिखरी हुई थी, जो उनके अन्दर के सैलाब को रोके हुई थी....उस ख़ामोशी के इस पार और उस पार ढेरों बातें पसरी हुई थीं.....कुछ बातें जो वो खुद ही समझ गए थे और कुछ बीते समय के साथ समझाई गयी थीं.....और बची हुई बातों को समझने के लिए इक तमाम उम्र पड़ी हुई थी .......

"थैंक्स फॉर एवरीथिंग" कहकर उसने उस पसरी ख़ामोशी को तोडा....ये शब्द बहुत देर बाद कहे गए थे...मगर शब्दों ने अपना वजूद जल्द ही समेट लिया.....शायद ये शब्द मात्र एक औपचारिकता से बढ़कर कुछ और न थे.....संभवत: समय के साथ उनके मायने भी बदल गए थे....वो कुछ न बोली.... उसकी ख़ामोशी में उसे "माई प्लेजर " सुनाई दिया...शायद उन दबे ओठों ने यही कुछ कहने की कोशिश की होगी...

ख़ामोशी फिर अपने पैर पसार रही थी...उसने अब उससे विदा लेना उचित समझा....अनगिनत बातों के समुन्दर को सिर्फ तीन शब्द "थैंक्स फॉर एवरीथिंग" में समेट कर , कहकर चले जाना उसकी खुद की समझ से परे था.....बहुत कुछ था कहने के लिए ....और ना कहने के लिए शायद कुछ भी नहीं....

वो थोडा पीछे हटा और मुड गया, चले जाने के लिए, उससे विदा लेने के लिए .....दो कदम चलकर वो उसकी तरफ मुड़ा....वो भी उसे ही जाते हुए देख रही थी.....उसे भी अपनी तरफ देखता देख उसने नज़र झुका ली.....
"अपना ख़याल रखना" उसने कहा ...इसका मतलब समझना शायद इतना कठिन न था....जितना उसके मायने समझना....उनका अर्थ समझना...उसके पीछे छुपा अपनापन.....उन शब्दों के अर्थ को समझने के लिए उसके पास तमाम वक़्त था...मगर जाते हुए मुसाफिर के पास समझाने के लिए चन्द कुछ और पल.....

"और तुम भी अपना" बहुत देर की ख़ामोशी के बाद उसने कहा.....शायद अपनी ख़ामोशी के साथ उसे विदा ना करना चाहती थी....मगर वो जा चुका था....दूर जाने के लिए.....कुछ उम्मीदें ही थीं उससे फिर कभी मिल पाने की.....फिर से देख पाने कीं, घंटों हँसी मजाक कर खिलखिलाने की.....


वो रास्ते भर इस सोच में था कि शायद वो उसे अपने आखिरी शब्दों के मायने समझा पाता....बता पाता कि उसे क्या, कुछ, कैसे करना है और कैसे नहीं, एक बच्चे की माफिक..... कुछ और दिन लड़ झगड़ लेता ....और फिर उसे समझाता एक दोस्त की तरह .....बता पाता कि कौन कैसा है और कौन कैसा नहीं...और किसकी सोच कैसी है.....एक संरक्षक की तरह.....कुछ और मायने समझा पाता "अपना ख़याल रखने के "...

इसी सोच के साथ कानों में ऑटो वाले की आवाज़ पड़ी "यहीं उतरेंगे क्या ?"...मन में फिर कुछ आधा-अधूरापन था ...... आज फिर कुछ एहसास अधूरे रह गए थे..... उन शब्दों के मायने समझने और समझाने के लिये ....
Anuj Gupta
रात का अंतिम पहर था.... सुबह के यही कोई चार या पाँच बजे होंगे.....फरबरी के इस खुशनुमा मौसम की उजली सर्द सुबह में, हथेली पर कुछ गर्माहट महसूस हुई.....लगा जैसे उसने मेरे सिरहाने बैठकर अपने हाथ को मेरी हथेली पर रखा हो ...उस स्पर्श में अनकही बातें थीं...लगा चुप्पी के पार ढेर सारी बातें सुलग रही हों....मानो वह बिन कहे बहुत कुछ कह देना चाहती थी ...उस थमे हुए वक़्त में ख़ामोशी अपने कदम पसार रही थी... मैं उन क़दमों के साथ उसकी साँसों के कम्पन्न को महसूस कर सकता था....और वह मेरी ।

आँखों ने आँखों से न जाने कितने संवाद शुरू किये और पल भर में ढेर सारे सवाल पूँछ डाले .....शुरू हुए उस लम्बे सफ़र में एक पल यूँ लगा जैसे कि जुबाँ की जगह उन्होंने ही ले ली हो ...शायद लम्बी ख़ामोशी के बाद यह उनकी बातचीत का नया तरीका था ।

मेरी आँखों ने एक के बाद एक सवाल पूँछना शुरू किये.....जैसे न जाने कितनी गहरी दोस्ती हो हमारी...जैसे कितना हक़ बनता हो मेरा उस पर...यह सब पूँछने का...और उसकी आँखें भी सब कुछ सुनती रहीं, बिना कोई उत्तर दिए...शायद उसे मेरे अगले सवालों का इंतजार था ...वह सब कुछ सुने जा रही थी ...बिना कोई रोक-टोक के...जैसे उसे सब कुछ स्वीकार्य था...शायद उसके धैर्य की सीमा मुझसे कहीं अधिक थी ...

मेरी आँखों में आक्रोश और आवेश कुछ कम हो चला था ....अब सवालों की जगह शिकायतों ने ले ली थी ...ढेर सारी शिकायतें थीं मेरे पास, उससे कहने की...उससे पूछने कीं...कि ऐसा उसने क्यों किया ?...शायद उसकी कोई मजबूरी थी ...या अचानक से पैदा हुई स्थिति...जिसे वह संभाल न सकी...या फिर पहले से बनी हुई कोई सोच.......

वो बस मेरे सवालों, शिकायतों, कटाक्षों को सुने जा रही थी..... उसकी चुप्पी, उसकी ख़ामोशी, उसकी स्वीकृति बयाँ कर रही थी.... जैसे वो सब कुछ सुनने को तैयार हो.... मैं खुद भी नहीं जानता था कि इन सब में सच क्या है ?.....और झूठ क्या...सच जो सिर्फ उसे पता था ....जिसे मेरी आँखें उसकी आँखों में पढने की कोशिश कर रही थीं ...

मेरे पिछले सभी सवालों, शिकायतों में से किसी का जवाब उसने न दिया.....शायद वो कोई जवाब देना ही नहीं चाहती थी...या फिर कोई जवाब था ही नहीं उसके पास, देने के लिए.....सिर्फ मेरी ही आँखें बोल रही थीं.....जिनमें अनगिनत सवाल, शिकायतें और शिकवे थे.....

शायद वो इस बात से डरती थी कि मैं कोई और उम्मीद न लगा बैठूँ जिसे वो निभा न पाए....या फिर दोस्ती से परे नए रिश्ते न बना बैठूँ ...जो शायद उसे मंजूर न हों.....मुमकिन है कुछ और भी सोच रही होगी उसकी.....जिससे उसने अपने किये वादे को आखिरी पड़ाव पर तोड़ दिया....कुछ तो वजह रही होगी उसके जहन में.....शायद उस कशमकश में उसने जो किया वह एकतरफा निर्णय था ......उसके लिए दूर जाना एक निर्णय था जबकि मेरे लिए एक टूटता हुआ विश्वास....

उसकी हथेली का दवाब मेरी हथेली पर बढ़ता चला गया...जैसे वो और सवालों....और शिकायतों को न सुनना चाहती हो .....वो मुझे और बोलने से रोक लेना चाहती थी.....शायद उसके धैर्य की सीमा ख़त्म हो रही थी....मैं भी चुप हो चला था ...उसकी पलकें भी धीरे-धीरे झुक गयीं थीं....

अपने सीने पर कुछ आँसू के बूंदों की गर्माहट महसूस की.....जो उसकी बंद आँखों से बह निकले थे.....शायद वो भी उन्हें न रोक पायी थी.... मेरी नम आँखें भी गीली हो चली थीं.....मैंने जो हाथ बढाकर उसके आँसुओं को पौंछना चाहा तो नींद टूट गयी ....लगा ये तो एक ख्वाब था ....पर सीने पर कुछ आँसुओं के मोती अपनी जगह थे, और हथेली पर गर्माहट अभी बाकी थी ....

सुबह के ये सपने झूठे नहीं होते....ऐसा किसी से सुना था .....

शायद यह एक ख्वाब ही होगा ....
Anuj Gupta
हर शख्स यहाँ जल्दी मे है... हर दुकानदार को जल्द से जल्द सामान बेच घर जाने की जल्दी है...तो हर खरीददार को सस्ता सामान खरीद ने की...शहर के बीच इस शोर भरे बाज़ार मे हर सामान पर बोली पर बोली लग रही है... इन्ही दुकानों के बीच मुखोटों की एक दुकान...बहुत भीड़ थी वहाँ... धक्के -मुक्के के साथ घुसना भी मुमकिन न था

हर शख्स अपनी-अपनी पसंद का , जरूरत का, आकार का, रंग का और औकात के हिसाब का मुखौटा ढूँढने में मशगूल थे... किसी को भी अपने साथ वाले की खबर न थी... कुछ देर तो समझ न आया कि माज़रा क्या है ... जो अपनी पसंद के मुखौटे पसंद कर चुके थे वो भाव-तौल में फँसे थे....
कोई सामाजिकता के मुखौटे मे अपने आकार का मुखौटा ढूँढता, कोई संवेदनाओं के मुखौटे मे अपना पसंदीदा रंग तलाशता, कोइ हमदर्दी और मददगारी के मुखौटे मे कुछ परिवर्तन करना चाहता तो कोई दो पसंदीदा मुखौटे के मिश्रण को खोजता ... और कोई तो इन सब पर आशा, विश्वास, सादगी, सहयोग और मासूमियत के भाव का लेप भी करवाना चाहते.... सब कुछ उपलब्ध था वहाँ पर.... कीमत आपकी जरूरत-विशेष के हिसाब से...

ये माजरा समझने में ज्यादा समय न लगा...बचपन मे जब किसी रिश्तेदार या पडोसी के दोहरे रूप के बारे मे सुनता तो अंदर से एक चिढ सी होती.... उस रिश्तेदार के आने पर उससे नहीं मिलता या उस पडोसी के घर जाना कम कर देता ... आज पुरानी यादे फिर ताज़ा हो गयी...वक्त और हालातों ने बहुत कुछ बदल दिया है...

इतने मे एक नेता जी अपनी सफ़ेद लाल बत्ती वाली एम्बेसडर से उतरे... कुछ देशसेवा और हमदर्दी मिश्रित वाले मुखौटा बनाने का ऑर्डर दिया... तो वहीँ एक व्यवसायी ने जागरूक और सामाजिकता वाला मुखौटा बनवाया... इस दौड़ में डॉक्टर और सरकारी बाबू भी पीछे नहीं थे ... एक ने दयावान मुखौटे पर जनसेवा का लेप लगवाया तो सरकारी बाबू ने ईमानदारी के मुखौटे में महानता के हाव भाव बनवाये .... पुरुषों की इस दौड़ में महिला कहाँ पीछे रहने वाली थी...एक महिला ने भी संवेदनशीलता और विश्वास के मुखौटे पर सुन्दरता का लेप चढ़ाया ।

इस मुखौटे की दौड़ में हम कहाँ पीछे रहने वाले थे...लपक लिए दुकान के अंदर अपने लिए भी एक अक्लमंदी, समझदारी और संजीदगी का मुखौटा ढूँढने ...
Anuj Gupta
बस एक प्यास है, तुम्हे जानने की,
मंजिल तक पहुँचने की, जिसे मैंने देखा,
जाना, कभी पहचाना,
संकेत भी नहीं है मेरे पास,
पर फिर भी,
बस वही है मेरी आस, यही है चाह,
जुड़े राहें, मंजिल मिले,
कोई कदम फिसले,
कोई भटके,
बस चलता रहूँ ,
अपने सपनो मे ही - रमता रहूँ ,
चाहे थकूँ, चाहे गिरूँ,
पर गिर-गिर कर भी उठूँ ,
संकल्प टूटे, साहस रूठे,
पग -पग पर जागूँ,
समझूँ जीवन को,
जो है एक सतत परीक्षण,
स्वयं का सतत निरीक्षण,
बस बढता रहूँ, चलता रहूँ,
मंजिल तक पहुचूँ पहुचूँ,
पर साहस छूटे,
हर अवरोध टूटे,
मेरा विवेक,
मुझसे कभी रूठे ....