Anuj Gupta
शाम हो चली थी... उसका सबसे विदा लेने का समय हो चला था....जिंदगी की एक नयी शुरुआत फिर से करने का...अगर संभव हो सका तो...कहने को तो चंद साल ही हुए थे, उन सब के बीच ... लेकिन किसी लम्बे अर्से से कम न थे.... जैसे उसने अपनी जिंदगी वहीँ पर जी हो, उन सबके बीच ....उनमे से कुछ तो उस के अपनों की तरह थे....शायद एक दोस्त, एक हमदम , एक हमसफ़र की तरह ...

वो एक - एक कर सब से विदा हो चला था, कुछ आधे-अधूरे मन से, हर किसी के लिए उसके पास कहने के लिये कुछ न कुछ था... किसी को उस को nick name से पुकारता, कुछ को गले मिल विदा लेता तो किसी को कुछ code word कह कर, इशारे मे कुछ कह कर बढ़ निकलता... सबसे मिल कर वो उस के पास जा पंहुचा, शायद उसे भी उसका इंतजार था... अब भी मिलकर न जाता तो शायद तमाम उम्र एक दर्द सा कचोटता रहता सीने मे... इतना निष्ठुर भी नहीं था वो... कुछ पल की खामोशी बहुत कुछ कहे जा रही थी... क्या कुछ न था कहने, सुनने- सुनाने और पूँछने का उनके पास...अनगिनत बाते थी,शायद उस से भी ज्यादा बातें .... हँसने -हँसाने की, व्यंग्य या ताने मारने की और फिर खिलखिलाकर देर तक हँसने की .......

मगर दोनों के बीच एक लम्बी ख़ामोशी बिखरी हुई थी, जो उनके अन्दर के सैलाब को रोके हुई थी....उस ख़ामोशी के इस पार और उस पार ढेरों बातें पसरी हुई थीं.....कुछ बातें जो वो खुद ही समझ गए थे और कुछ बीते समय के साथ समझाई गयी थीं.....और बची हुई बातों को समझने के लिए इक तमाम उम्र पड़ी हुई थी .......

"थैंक्स फॉर एवरीथिंग" कहकर उसने उस पसरी ख़ामोशी को तोडा....ये शब्द बहुत देर बाद कहे गए थे...मगर शब्दों ने अपना वजूद जल्द ही समेट लिया.....शायद ये शब्द मात्र एक औपचारिकता से बढ़कर कुछ और न थे.....संभवत: समय के साथ उनके मायने भी बदल गए थे....वो कुछ न बोली.... उसकी ख़ामोशी में उसे "माई प्लेजर " सुनाई दिया...शायद उन दबे ओठों ने यही कुछ कहने की कोशिश की होगी...

ख़ामोशी फिर अपने पैर पसार रही थी...उसने अब उससे विदा लेना उचित समझा....अनगिनत बातों के समुन्दर को सिर्फ तीन शब्द "थैंक्स फॉर एवरीथिंग" में समेट कर , कहकर चले जाना उसकी खुद की समझ से परे था.....बहुत कुछ था कहने के लिए ....और ना कहने के लिए शायद कुछ भी नहीं....

वो थोडा पीछे हटा और मुड गया, चले जाने के लिए, उससे विदा लेने के लिए .....दो कदम चलकर वो उसकी तरफ मुड़ा....वो भी उसे ही जाते हुए देख रही थी.....उसे भी अपनी तरफ देखता देख उसने नज़र झुका ली.....
"अपना ख़याल रखना" उसने कहा ...इसका मतलब समझना शायद इतना कठिन न था....जितना उसके मायने समझना....उनका अर्थ समझना...उसके पीछे छुपा अपनापन.....उन शब्दों के अर्थ को समझने के लिए उसके पास तमाम वक़्त था...मगर जाते हुए मुसाफिर के पास समझाने के लिए चन्द कुछ और पल.....

"और तुम भी अपना" बहुत देर की ख़ामोशी के बाद उसने कहा.....शायद अपनी ख़ामोशी के साथ उसे विदा ना करना चाहती थी....मगर वो जा चुका था....दूर जाने के लिए.....कुछ उम्मीदें ही थीं उससे फिर कभी मिल पाने की.....फिर से देख पाने कीं, घंटों हँसी मजाक कर खिलखिलाने की.....


वो रास्ते भर इस सोच में था कि शायद वो उसे अपने आखिरी शब्दों के मायने समझा पाता....बता पाता कि उसे क्या, कुछ, कैसे करना है और कैसे नहीं, एक बच्चे की माफिक..... कुछ और दिन लड़ झगड़ लेता ....और फिर उसे समझाता एक दोस्त की तरह .....बता पाता कि कौन कैसा है और कौन कैसा नहीं...और किसकी सोच कैसी है.....एक संरक्षक की तरह.....कुछ और मायने समझा पाता "अपना ख़याल रखने के "...

इसी सोच के साथ कानों में ऑटो वाले की आवाज़ पड़ी "यहीं उतरेंगे क्या ?"...मन में फिर कुछ आधा-अधूरापन था ...... आज फिर कुछ एहसास अधूरे रह गए थे..... उन शब्दों के मायने समझने और समझाने के लिये ....