Anuj Gupta
रात का अंतिम पहर था.... सुबह के यही कोई चार या पाँच बजे होंगे.....फरबरी के इस खुशनुमा मौसम की उजली सर्द सुबह में, हथेली पर कुछ गर्माहट महसूस हुई.....लगा जैसे उसने मेरे सिरहाने बैठकर अपने हाथ को मेरी हथेली पर रखा हो ...उस स्पर्श में अनकही बातें थीं...लगा चुप्पी के पार ढेर सारी बातें सुलग रही हों....मानो वह बिन कहे बहुत कुछ कह देना चाहती थी ...उस थमे हुए वक़्त में ख़ामोशी अपने कदम पसार रही थी... मैं उन क़दमों के साथ उसकी साँसों के कम्पन्न को महसूस कर सकता था....और वह मेरी ।

आँखों ने आँखों से न जाने कितने संवाद शुरू किये और पल भर में ढेर सारे सवाल पूँछ डाले .....शुरू हुए उस लम्बे सफ़र में एक पल यूँ लगा जैसे कि जुबाँ की जगह उन्होंने ही ले ली हो ...शायद लम्बी ख़ामोशी के बाद यह उनकी बातचीत का नया तरीका था ।

मेरी आँखों ने एक के बाद एक सवाल पूँछना शुरू किये.....जैसे न जाने कितनी गहरी दोस्ती हो हमारी...जैसे कितना हक़ बनता हो मेरा उस पर...यह सब पूँछने का...और उसकी आँखें भी सब कुछ सुनती रहीं, बिना कोई उत्तर दिए...शायद उसे मेरे अगले सवालों का इंतजार था ...वह सब कुछ सुने जा रही थी ...बिना कोई रोक-टोक के...जैसे उसे सब कुछ स्वीकार्य था...शायद उसके धैर्य की सीमा मुझसे कहीं अधिक थी ...

मेरी आँखों में आक्रोश और आवेश कुछ कम हो चला था ....अब सवालों की जगह शिकायतों ने ले ली थी ...ढेर सारी शिकायतें थीं मेरे पास, उससे कहने की...उससे पूछने कीं...कि ऐसा उसने क्यों किया ?...शायद उसकी कोई मजबूरी थी ...या अचानक से पैदा हुई स्थिति...जिसे वह संभाल न सकी...या फिर पहले से बनी हुई कोई सोच.......

वो बस मेरे सवालों, शिकायतों, कटाक्षों को सुने जा रही थी..... उसकी चुप्पी, उसकी ख़ामोशी, उसकी स्वीकृति बयाँ कर रही थी.... जैसे वो सब कुछ सुनने को तैयार हो.... मैं खुद भी नहीं जानता था कि इन सब में सच क्या है ?.....और झूठ क्या...सच जो सिर्फ उसे पता था ....जिसे मेरी आँखें उसकी आँखों में पढने की कोशिश कर रही थीं ...

मेरे पिछले सभी सवालों, शिकायतों में से किसी का जवाब उसने न दिया.....शायद वो कोई जवाब देना ही नहीं चाहती थी...या फिर कोई जवाब था ही नहीं उसके पास, देने के लिए.....सिर्फ मेरी ही आँखें बोल रही थीं.....जिनमें अनगिनत सवाल, शिकायतें और शिकवे थे.....

शायद वो इस बात से डरती थी कि मैं कोई और उम्मीद न लगा बैठूँ जिसे वो निभा न पाए....या फिर दोस्ती से परे नए रिश्ते न बना बैठूँ ...जो शायद उसे मंजूर न हों.....मुमकिन है कुछ और भी सोच रही होगी उसकी.....जिससे उसने अपने किये वादे को आखिरी पड़ाव पर तोड़ दिया....कुछ तो वजह रही होगी उसके जहन में.....शायद उस कशमकश में उसने जो किया वह एकतरफा निर्णय था ......उसके लिए दूर जाना एक निर्णय था जबकि मेरे लिए एक टूटता हुआ विश्वास....

उसकी हथेली का दवाब मेरी हथेली पर बढ़ता चला गया...जैसे वो और सवालों....और शिकायतों को न सुनना चाहती हो .....वो मुझे और बोलने से रोक लेना चाहती थी.....शायद उसके धैर्य की सीमा ख़त्म हो रही थी....मैं भी चुप हो चला था ...उसकी पलकें भी धीरे-धीरे झुक गयीं थीं....

अपने सीने पर कुछ आँसू के बूंदों की गर्माहट महसूस की.....जो उसकी बंद आँखों से बह निकले थे.....शायद वो भी उन्हें न रोक पायी थी.... मेरी नम आँखें भी गीली हो चली थीं.....मैंने जो हाथ बढाकर उसके आँसुओं को पौंछना चाहा तो नींद टूट गयी ....लगा ये तो एक ख्वाब था ....पर सीने पर कुछ आँसुओं के मोती अपनी जगह थे, और हथेली पर गर्माहट अभी बाकी थी ....

सुबह के ये सपने झूठे नहीं होते....ऐसा किसी से सुना था .....

शायद यह एक ख्वाब ही होगा ....
Anuj Gupta
हर शख्स यहाँ जल्दी मे है... हर दुकानदार को जल्द से जल्द सामान बेच घर जाने की जल्दी है...तो हर खरीददार को सस्ता सामान खरीद ने की...शहर के बीच इस शोर भरे बाज़ार मे हर सामान पर बोली पर बोली लग रही है... इन्ही दुकानों के बीच मुखोटों की एक दुकान...बहुत भीड़ थी वहाँ... धक्के -मुक्के के साथ घुसना भी मुमकिन न था

हर शख्स अपनी-अपनी पसंद का , जरूरत का, आकार का, रंग का और औकात के हिसाब का मुखौटा ढूँढने में मशगूल थे... किसी को भी अपने साथ वाले की खबर न थी... कुछ देर तो समझ न आया कि माज़रा क्या है ... जो अपनी पसंद के मुखौटे पसंद कर चुके थे वो भाव-तौल में फँसे थे....
कोई सामाजिकता के मुखौटे मे अपने आकार का मुखौटा ढूँढता, कोई संवेदनाओं के मुखौटे मे अपना पसंदीदा रंग तलाशता, कोइ हमदर्दी और मददगारी के मुखौटे मे कुछ परिवर्तन करना चाहता तो कोई दो पसंदीदा मुखौटे के मिश्रण को खोजता ... और कोई तो इन सब पर आशा, विश्वास, सादगी, सहयोग और मासूमियत के भाव का लेप भी करवाना चाहते.... सब कुछ उपलब्ध था वहाँ पर.... कीमत आपकी जरूरत-विशेष के हिसाब से...

ये माजरा समझने में ज्यादा समय न लगा...बचपन मे जब किसी रिश्तेदार या पडोसी के दोहरे रूप के बारे मे सुनता तो अंदर से एक चिढ सी होती.... उस रिश्तेदार के आने पर उससे नहीं मिलता या उस पडोसी के घर जाना कम कर देता ... आज पुरानी यादे फिर ताज़ा हो गयी...वक्त और हालातों ने बहुत कुछ बदल दिया है...

इतने मे एक नेता जी अपनी सफ़ेद लाल बत्ती वाली एम्बेसडर से उतरे... कुछ देशसेवा और हमदर्दी मिश्रित वाले मुखौटा बनाने का ऑर्डर दिया... तो वहीँ एक व्यवसायी ने जागरूक और सामाजिकता वाला मुखौटा बनवाया... इस दौड़ में डॉक्टर और सरकारी बाबू भी पीछे नहीं थे ... एक ने दयावान मुखौटे पर जनसेवा का लेप लगवाया तो सरकारी बाबू ने ईमानदारी के मुखौटे में महानता के हाव भाव बनवाये .... पुरुषों की इस दौड़ में महिला कहाँ पीछे रहने वाली थी...एक महिला ने भी संवेदनशीलता और विश्वास के मुखौटे पर सुन्दरता का लेप चढ़ाया ।

इस मुखौटे की दौड़ में हम कहाँ पीछे रहने वाले थे...लपक लिए दुकान के अंदर अपने लिए भी एक अक्लमंदी, समझदारी और संजीदगी का मुखौटा ढूँढने ...